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वही दाग़-ए-लाला की बात है कि ब-नाम-ए-हुस्न उधर गई - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

वही दाग़-ए-लाला की बात है कि ब-नाम-ए-हुस्न उधर गई

वही दाग़-ए-लाला की बात है कि ब-नाम-ए-हुस्न उधर गई

कोई क्या कहे कि कहाँ कहाँ तिरे ख़ाल-ए-रुख़ की ख़बर गई

कोई हाथ दश्ना-ए-जाँ-सिताँ कोई हाथ मरहम-ए-पर्नियाँ

ये तो हाथ हाथ की बात है कोई वक़्त पा के सँवर गई

वही एक सूद ओ ज़ियाँ का ग़म जो मिज़ाज-ए-इश्क़ से दूर था

वो तिरी ज़बाँ पे भी आ गया तो लगन ही जी की बिखर गई

किसी एक सिलसिला-ए-वफ़ा की मताअ ज़ुल्फ़-ए-दोता नहीं

कोई पेच-ओ-ताब-ए-हवा मिले कि वो ज़ुल्फ़ ता-ब-कमर गई

ये शिकायत-ए-दर-ओ-बाम क्या ये रबात-ए-कोहना की रात क्या

कोई बे-चराग़ शब-ए-वफ़ा तिरे शहर में भी गुज़र गई

इसी ज़िंदगी के हज़ार उफ़ुक़ इसी ज़िंदगी के हज़ार रुख़

इसी इक ख़याल की रौ थी वो जो तिरी जबीं पे बिखर गई

वो हज़ार शौक़ की लग़्ज़िशें मगर एक लज़्ज़त-ए-नारसी

मिरी आश्ना-ए-तरब नज़र तिरे रुख़ पे आ के ठहर गई

कभी आतिश-ए-ख़स-ओ-ख़ार से भी गुलों को ज़ौक़-ए-नुमू मिला

कभी शाख़-ए-गुल से लहक उठी वो सिनाँ जो ता-ब-जिगर गई

वो ज़बान-ए-सरमद-ए-बे-दलील वो ख़राश-ए-ख़ंजर-ए-हुक्मराँ

कोई इम्तिहान-ए-दलील क्या कि दिलों में बात उतर गई

वो ग़रीब-ए-शहर कहे भी क्या जो तिरी ज़बाँ से है बे-ख़बर

मगर एक राह-ए-सुख़न भी है कि ये ज़िंदगी है जिधर गई

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