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तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी

तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी

मेरे सीने में ख़स-ओ-ख़ार हैं काफ़ी साक़ी

ज़ुल्मत ओ नूर को प्यालों में समो देती है

शाम पड़ते ही तिरी चश्म-ए-ग़िलाफ़ी साक़ी

ज़हर का जाम ही दे ज़हर भी है आब-ए-हयात

ख़ुश्क-साली की तो हो जाए तलाफ़ी साक़ी

नश्शा-ए-मय से ज़रा ज़ख़्म के टाँके टूटे

ता-अबद सिलसिला-ए-सीना-शिगाफ़ी साक़ी

ज़िंदगानी का मरज़ कम नहीं होने पाता

ये मरज़ कम न हो अल्लाह है शाफ़ी साक़ी

काट दी गर्दिश-ए-अय्याम की ज़ंजीर उस ने

कौन है गर्दिश-ए-मीना के मुनाफ़ी साक़ी

इक कफ़-ए-जू है मता-ए-ख़िरद ओ सिक्का-ए-होश

जाम-ए-मय दे कि ये आलम है इज़ाफ़ी साक़ी

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