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सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए

सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए

वो ज़ुल्फ़ खुल गई तो हवाओं के ख़म गए

सारी फ़ज़ा थी वादी-ए-मजनूँ की ख़्वाब-नाक

जो रूशनास-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत थे कम गए

वहशत सी एक लाला-ए-ख़ूनीं कफ़न से थी

अब के बहार आई तो समझो कि हम गए

अब जिन के ग़म का तेरा तबस्सुम है पर्दा-दार

आख़िर वो कौन थे कि ब-मिज़गान-ए-नम गए

ऐ जादा-ए-ख़िराम-ए-मह-ओ-महर देखना

तेरी तरफ़ भी आज हवा के क़दम गए

मैं और तेरे बंद-ए-क़बा की हदीस-ए-इश्क़

ना-दीदा ख़्वाब-ए-इश्क़ कई बे-रक़म गए

ऐसी कोई ख़बर तो नहीं साकिनान-ए-शहर

दरिया मोहब्बतों के जो बहते थे थम गए

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