नावक-ए-ताज़ा दिल पर मारा जंग पुरानी जारी की
नावक-ए-ताज़ा दिल पर मारा जंग पुरानी जारी की
आज हवा ने ज़ख़्म-ए-कुहन में डूब के ताज़ा-कारी की
जिस क्यारी में फूल खिले थे नाग-फनी सी लगती है
मौसम-ए-गुल ने जाते जाते देखा क्या दुश्वारी की
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
सय्यारों की राख में मिलती रात थी इक बेदारी की
कू-ए-बयाँ की वीरानी से मेरा भी जी बैठ गया
मुँह मोड़े आवाज़ खड़ी है साज़-ए-राह-सिपारी की
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