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न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं

न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं

वफ़ा के नाम से क्या क्या सियासतें निकलीं

खुली है वहशत-ए-आलम पे आज काकुल-ए-यार

कुछ और दौर-ए-ख़िरद तेरी निस्बतें निकलीं

हज़ार हाथों के पैमान-ए-नौ का मरकज़ है

हवा के हाथ में ना-दीद ताक़तें निकलीं

सिपाह-ए-इश्क़ जहाँ ख़ंदक़ों में जलती थी

वो मोड़ काट के आख़िर मोहब्बतें निकलीं

फ़ज़ा-ए-ताज़ा-नफ़स दिलबरी की आई है

नई नई ग़म-ए-दिल की मसाफ़तें निकलीं

शरार-ए-महर-ओ-नम-ए-अब्र के तग़य्युर तक

विसाल-ए-दोस्त में क्या क्या नज़ाकतें निकलीं

वही कि रश्क-ए-रक़ीबाँ से तीरा-तर है जो ज़ुल्फ़

कल इत्तिफ़ाक़ से उस की हिकायतें निकलीं

वो हर्फ़-ए-शक है कि अहल-ए-यक़ीं नहीं समझे

दिमाग़-ए-कुफ़्र से क्या क्या हक़ीक़तें निकलीं

कमंद-ए-सारिक़ ओ मार-ए-सियाह में आख़िर

ये किस का हाथ था ये किस की हिकमतें निकलीं

विसाल-ओ-हिज्र से क्या इश्क़ से सँभल न सकीं

तिरी निगाह में ऐसी नदामतें निकलीं

निगार-ख़ाने के नक़्श-ओ-निगार कुछ भी न थे

जुनूँ की आँख में ग़ल्तीदा सूरतें निकलीं

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