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ख़त्म हुई शब-ए-वफ़ा ख़्वाब के सिलसिले गए - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

ख़त्म हुई शब-ए-वफ़ा ख़्वाब के सिलसिले गए

ख़त्म हुई शब-ए-वफ़ा ख़्वाब के सिलसिले गए

जिस दर-ए-नीम-बाज़ के पेश थे मरहले गए

जो रग-ए-अब्र-ओ-बाद से ता-ब-रग-ए-जुनूँ रहें

इश्क़ की वो हिकायतें हुस्न के वो गिले गए

शुक्र-ओ-सिपास का मज़ा दे ही गया सुकूत-ए-यार

वस्ल-ओ-फ़िराक़ से अलग दर्द के हौसले गए

इक मिरे हम-कनार की मुझ से क़रीब आ के रात

ख़ेमा-ए-दर्द हो गई क़ुर्ब के वलवले गए

दश्त में क़हत-ए-आब से हिजरत-ए-ताइराँ के बा'द

सैर-पसंद-ओ-तर-नफ़स अब्र के क़ाफ़िले गए

ऐ ये फ़ुसून-ए-दिलबरी ताज़ा-रुख़-ओ-सियाह-चश्म

मंज़िल-ए-क़ुर्ब भी गई तुझ से न फ़ासले गए

नींद में महवशान-ए-शहर बोसा-ए-आशिक़ाँ की ख़ैर

शब-ब-हवा-ए-नर्म-सैर सुब्ह हुई सिले गए

ऐ रुख़-ए-ताज़ा-जहाँ रात तो अब भी है गराँ

शम-ए-हज़ार-रंग तक यूँ तिरे सिलसिले गए

दामन-ए-दिल की ओट से एक शब-ए-फ़िराक़ क्या

दौर-ए-तग़य्युर-ए-जहाँ सब तिरे क़ाफ़िले गए

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