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जूयान-ए-ताज़ा-कारी-ए-गुफ़्तार कुछ कहो - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

जूयान-ए-ताज़ा-कारी-ए-गुफ़्तार कुछ कहो

जूयान-ए-ताज़ा-कारी-ए-गुफ़्तार कुछ कहो

तुम भी हुए हो काशिफ़-ए-असरार कुछ कहो

शीशा कहीं से लाओ शराब-ए-फ़रंग का

बाक़ी जो थी हिकायत-ए-दिलदार कुछ कहो

जाने भी दो तग़य्युर-ए-आलम की दास्ताँ

किस हाल में है नर्गिस-ए-बीमार कुछ कहो

बादल उठे हैं चश्मक-ए-बर्क़-ओ-शरार है

मुँह देखते हो सूरत-ए-दीवार कुछ कहो

मुतरिब को ताज़ा बैत सिखाओ हुआ है नर्म

गुज़रे किसी तरह तो शब-ए-तार कुछ कहो

ठहरा हुआ है वादी-ए-ग़म में रमीदा वक़्त

समझो भी कुछ नज़ाकत-ए-बिसयार कुछ कहो

ज़िंदा-दिलान-ए-शौक़ ने रक्खा बहार नाम

इक मौज-ए-ख़ूँ गई सर-ए-गुलज़ार कुछ कहो

आग़ाज़ हर तग़य्युर-ए-आलम की हद हुआ

उस की गली का साया-ए-दीवार कुछ कहो

उलझेगा आज जी कि हवा पेच पेच है

बनता नहीं कोई रुख़-ए-गुफ़्तार कुछ कहो

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