इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं

इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं

दिल के सिवा हरीफ़ कोई दूसरा नहीं

आँखें तरस गईं तुम्हें देखे हुए मगर

घर क़ाबिल-ए-ज़ियाफ़त-ए-मेहमाँ रहा नहीं

नाक़ूस कोई बहर की तह में है नारा-ज़न

साहिल की ये सदा तो कोई नाख़ुदा नहीं

माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम

तुम आदमी हो बात तो सुन लो ख़ुदा नहीं

लुत्फ़-ए-सुख़न यही था कि ख़ुद तुम भी कुछ कहो

ये वहम है कि अब कोई गोश-ए-वफ़ा नहीं

मेरी वफ़ा बराए वफ़ा इत्तिफ़ाक़ थी

मेरे सिवा किसी पे ये अफ़्सूँ चला नहीं

उस की नज़र तग़य्युर-ए-हालात पर गई

कोई मिज़ाज-दान-मोहब्बत मिला नहीं

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