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हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी

हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी

इक अफ़्सून-ए-बरहमन है कि पैदा भी है पिन्हाँ भी

न जा ऐ नाख़ुदा दरिया की आहिस्ता-ख़िरामी पर

इसी दरिया में ख़्वाबीदा है मौज-ए-तुंद जौलाँ भी

कमाल-ए-जाँ-निसारी हो गई है ख़ाक परवाना

उसे इक्सीर भी कहते हैं और ख़ाक-ए-परेशाँ भी

विदा-ए-शब भी है और शम्अ' पर इक बाँकपन भी है

हदीस-ए-शौक़ भी है क़िस्सा-ए-उम्र-ए-गुरेज़ाँ भी

न आई याद तेरी ये भी मौसम का तग़य्युर था

ये कुश्त-ए-शौक़ थी परवर्दा-हा-ए-बाद-ओ-बाराँ भी

ये दुनिया है तो क्या ऐ हम-नफ़स तफ़सीर-ए-ग़म कीजे

वही आदाब-ए-महफ़िल भी वही आदाब-ए-ज़िंदाँ भी

शुआ-ए-मेहर है या इल्तिज़ाम-ए-ज़ख़्म-ओ-मरहम है

ये दाग़-ए-लाला भी है शो'ला-ए-ला'ल-ए-बदख़्शाँ भी

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