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फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए

फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए

सुबुक हुए हैं तो ऐश-ए-मलाल से भी गए

जो बुत-कदे में थे वो साहिबान-ए-कश्फ़-ओ-कमाल

हरम में आए तो कश्फ़-ओ-कमाल से भी गए

उसी निगाह की नर्मी से डगमगाए क़दम

उसी निगाह के तेवर सँभाल से भी गए

ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में

हम ऐसे लोग तो रंज-ओ-मलाल से भी गए

गुल ओ समर का तो रोना अलग रहा लेकिन

ये ग़म कि फ़र्क़-ए-हराम-ओ-हलाल से भी गए

वो लोग जिन से तिरी बज़्म में थे हंगामे

गए तो क्या तिरी बज़्म-ए-ख़याल से भी गए

हम ऐसे कौन थे लेकिन क़फ़स की ये दुनिया

कि पर-शिकस्तों में अपनी मिसाल से भी गए

चराग़-ए-बज़्म अभी जान-ए-अंजुमन न बुझा

कि ये बुझा तो तिरे ख़त्त-ओ-ख़ाल से भी गए

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