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इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया

इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया

दीवार-ओ-दर में शो'ला-ए-बरहम सा रह गया

शेर-ए-वतन के प्याले पे थीं कल ज़ियाफ़तें

आया जो ता-ब-लब तो फ़क़त सम सा रह गया

माना वफ़ा बराए-वफ़ा इत्तिफ़ाक़ थी

तुम सा रहा कोई न कोई हम सा रह गया

इक ला-तअल्लुक़ी की फ़ज़ा दरमियाँ रही

जब दो दिलों में फ़र्क़ बहुत कम सा रह गया

उस सर्व-क़द की ताब-ओ-मुलाएम-रुख़ी का राज़

इस्याँ की शब में दीदा-ए-पुर-नम सा रह गया

आख़िर हुई बहार मगर रंग-ए-गुल का ख़्वाब

दिल में दुआ निगाह में शबनम सा रह गया

इक उस के रंग-ए-रुख़ की जुनूँ-साज़ छूट से

इस ज़िंदगी में ख़्वाब का आलम सा रह गया

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