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बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं

बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं

दूर दूर से आने वाले रस्ते कहीं कहीं मिलते हैं

वहम भी हो जाता है दिल को लेकिन इस में तअ'ज्जुब क्या है

ऐसे दश्त कि जिन में शमएँ आप ही आप जलीं, मिलते हैं

गहरे सुर्ख़ गुलाब का अंधा बुलबुल साँप को क्या देखेगा

पास ही उगती नाग-फनी थी सारे फूल वहीं मिलते हैं

कान में मोती हाथ में कंगन फूल चमेली का जूड़े में

क्या क्या रंग जमाने वाले आँखें जिन से बसीं, मिलते हैं

तेरे जिस्म की धार कटार सी आँख के पर्दों में तड़पी थी

ख़ाकिस्तर आँखों में क्या क्या उन लम्हों के नगीं मिलते हैं

तुम को झूटा ठहरा सकता किस में इतना जस है लेकिन

ऐसे लोग बहुत होते हैं वा'दा कर के नहीं मिलते हैं

कोहना सराए की रौशनियों ने कह ही दिया दीवट के दियों से

आओ आओ ठहरो ठहरो मेहमाँ रोज़ नहीं मिलते हैं

सर का सौदा पाँव की गर्दिश जो भी सबब हो न मिलने का

तुम तो साहब क्या मिलते हो मिलते हैं तो हमीं मिलते हैं

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