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आज मुक़ाबला है सख़्त मीर-ए-सिपाह के लिए - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

आज मुक़ाबला है सख़्त मीर-ए-सिपाह के लिए

आज मुक़ाबला है सख़्त मीर-ए-सिपाह के लिए

हो गए सर कई क़लम एक कुलाह के लिए

ताज़ा-रुख़ी-ए-काएनात ढूँड रही है आइना

जुस्तुजू है हज़ार में एक गवाह के लिए

खुल ही गया तिलिस्म-ए-दोस्त ऐन विसाल में कि थी

इक शब-ए-हिज्र ज़िंदगी लज़्ज़त-ए-आह के लिए

इक शब-ए-ख़ुद-नुमाई में इस्मत-ए-बे-मक़ाम ने

कितने सवाल कर लिए रम्ज़-ए-गुनाह के लिए

सूरत-ए-गर्द कारवाँ है ग़म-ए-मंज़िल-ए-जहाँ

ख़्वाब-ए-जुनून-ए-ताज़ा-कार चाहिए राह के लिए

आतिश-ए-कीमिया-गिराँ काम न आ सकी कोई

सुर्मा है ख़ाक-ए-दिल मिरी चश्म-ए-सियाह के लिए

मेरी ख़ुद-आगही भी कि तेरे विसाल ने तलब

हिज्र-ए-हज़ार-शब के ब'अद एक गुनाह के लिए

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