थका हारा निकल कर घर से अपने
वो पीर ऑफ़िस में सोने जा चुका है
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वो साड़ी ज्यूलरी के तहाइफ़ पे थी ब-ज़िद
मैं ने सुनाया उस को जो उर्दू में हाल-ए-दिल
वो हसब-ए-शहर कर लेता है मस्लक में भी तब्दीली
है कामयाबी-ए-मर्दां में हाथ औरत का
वो अफ़तारी से पहले चखते चखते
दे रहे हैं इस लिए जंगल में धरना जानवर
केबल पे एक शेल्फ़ से जल्दी में सीख कर
न ये क़ानून काम आया था राँझे के ज़रा सा भी
कुछ इस लिए भी उसे टूट कर नहीं चाहा
दो ख़त ब-नाम-ए-ज़ौजा-ओ-जानाँ लिखे मगर
उमीद