इश्क़ में ये तफ़रक़ा-बाज़ी बहुत मायूब है
प्यार को शीआ वहाबी और सुन्नी मत समझ
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वो तीस साल से है फ़क़त बीस साल की
वो हसब-ए-शहर कर लेता है मस्लक में भी तब्दीली
दो ख़त ब-नाम-ए-ज़ौजा-ओ-जानाँ लिखे मगर
दे रहे हैं इस लिए जंगल में धरना जानवर
थका हारा निकल कर घर से अपने
वो साड़ी ज्यूलरी के तहाइफ़ पे थी ब-ज़िद
बेगम से कह रहा था ये कोई ख़ला-नवर्द
मैं ने सुनाया उस को जो उर्दू में हाल-ए-दिल
दस बारा ग़ज़लियात जो रखता है जेब में
उमीद
कूदे हैं उस के सेहन में दो-चार शेर-दिल
वे बालों में कलर लगवा चुका है