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लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं - अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा कविता - Darsaal

लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं

लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं

बदन छतों की तरह धूप में झुलसते हैं

हम ऐसे पेड़ हैं जो छाँव बाँध कर रख दें

शदीद धूप में ख़ुद साए को तरसते हैं

हर एक जिस्म के चारों तरफ़ समुंदर है

यहाँ अजीब जज़ीरों में लोग बस्ते हैं

सभी को धुन है कि शीशे के बाम-ओ-दर हों मगर

ये देखते नहीं पत्थर अभी बरसते हैं

बहा के ले गया सैलाब रास्ते जिन के

वो शहर अपने ख़यालों में अब भी बस्ते हैं

मआ'ल क्या है उजालों के उन दफ़ीनों का

जिन्हें छुएँ तो अंधेरों के नाग डसते हैं

अजीब लोग हैं काग़ज़ की कश्तियाँ गढ़ के

समुंदरों की बला-ख़ेज़ियों पे हँसते हैं

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