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कुछ ज़िंदगी में इश्क़-ओ-वफ़ा का हुनर भी रख - अज़ीज़ अन्सारी कविता - Darsaal

कुछ ज़िंदगी में इश्क़-ओ-वफ़ा का हुनर भी रख

कुछ ज़िंदगी में इश्क़-ओ-वफ़ा का हुनर भी रख

रिश्ता ख़ुशी से जोड़ ग़म-ए-मो'तबर में रख

शहरों में ज़िंदगी का सफ़र अब मुहाल है

बेहतर तो ये है सहरा पे अपनी नज़र भी रख

दुनिया के हादसात से भी रख तू वास्ता

हालात घर के कैसे हैं इस की ख़बर भी रख

तलवार ही से फ़त्ह तो मिलती नहीं कभी

नादान पहले अपनी हथेली पे सर भी रख

उम्मीद उस के रहम-ओ-करम की भी रख ज़रूर

दामन को अपने अश्क-ए-नदामत से तर भी रख

गर ज़िंदगी में चाहता है सर-बुलंदियाँ

पहले किसी फ़क़ीर के क़दमों पे सर भी रख

गर आरज़ू है तुझ को मिले मंज़िल-ए-हयात

इस आरज़ू में ख़ुद को तो महव-ए-सफ़र भी रख

इस दिलकशी में चाँद की ख़ुद को न भूल जा

अपनी नज़र में जल्वा-ए-शक़्क़ुल-क़मर भी रख

शाहों के दर पे जाने से मैं रोकता नहीं

लेकिन तू ख़ानक़ाहों में अपना गुज़र भी रख

दानों के वास्ते तू ज़मीं पर भी आ 'अज़ीज़'

हर-चंद आसमानों पे तू अपना घर भी रख

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