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कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है - अज़ीम हैदर सय्यद कविता - Darsaal

कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है

कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है

घर का घर ही जहाँ बाज़ार में आ सकता है

किस लिए ख़ुद को समझता है वो पत्थर की लकीर

उस का इंकार भी इक़रार में आ सकता है

मुझ को मालूम है दरियाओं का कफ़ है तुझ में

तू मिरे मौजा-ए-पिंदार में आ सकता है

ऐ हवा की तरह अठखेलियाँ करने वाले

बल कभी वक़्त की रफ़्तार में आ सकता है

सर पे सूरज है तो फिर छाँव से महज़ूज़ न हो

धूप का रंग भी दीवार में आ सकता है

ये जो मैं अपने तईं शाएरी करता हूँ 'अज़ीम'

क्या तख़य्युल मिरा इज़हार में आ सकता है

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