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मआल-ए-दोस्ती कहिए हदीस-ए-मह-वशाँ कहिए - अज़हर सईद कविता - Darsaal

मआल-ए-दोस्ती कहिए हदीस-ए-मह-वशाँ कहिए

मआल-ए-दोस्ती कहिए हदीस-ए-मह-वशाँ कहिए

मिले दिल से ज़रा फ़ुर्सत तो दिल की दास्ताँ कहिए

मगर इस ख़ामुशी से अहल-ए-दिल का कुछ भरम तो है

जो कुछ कहिए तो सारी उम्र की महरूमियाँ कहिए

ग़म-ए-दिल अव्वलीं दौर-ए-तमन्ना की अमानत है

नवेद-ए-ऐश अगर सुनिए नसीब-ए-दुश्मनाँ कहिए

जो रख ले ख़स्तगी की शर्म ऐसी बर्क़ रहमत है

गिरे जो आशियाँ से दूर उस को बे-अमाँ कहिए

हमारा क्या है नासेह हम उसे ना-मेहरबाँ कह दें

पर ऐसा भी तो हो कोई कि जिस को मेहरबाँ कहिए

किसी से भी न कहिए हाल-ए-दिल बे-मेहर दुनिया में

यहाँ सब कुछ ब-अंदाज़-ए-हदीस-ए-दीगराँ कहिए

बस अब उठिए कि नंग-ए-पुर्सिश-ए-बेजा क़यामत है

कहाँ तक एक इक बे-नाम से नाम-ओ-निशाँ कहिए

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