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सुकूत-ए-शब - अज़हर क़ादिरी कविता - Darsaal

सुकूत-ए-शब

फ़ज़ा-ए-ज़ीस्त पे छाई है कैसी ख़ामोशी

न कोई शोर न शेवन न गिर्या-ओ-ज़ारी

न कोई शिकवा-ब-लब है न कोई फ़रियादी

न कोई दर्द का क़िस्सा न कोई ज़िक्र-ए-अलम

न सिसकियों का कोई इर्तिआ'श ज़ोलीदा

न दूद-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ की कोई गिराँबारी

न कोई हर्फ़-ए-अलम है न इस्तिआ'रा-ए-ग़म

न कोई क़तरा-ए-ख़ूँ है सियाही-ए-क़िरतास

सितम-कशों पे है तारी अजीब आलम-ए-यास

नहीं हैं ऐश के नग़्मे तो ग़म के गीत सही

किसी के हल्क़ा-ए-ज़ंजीर ही के साज़ बजें

किसी का ज़ख़्म-ए-जिगर ही चटक के दे आवाज़

कहीं से दिल के धड़कने ही की सदा आए

रफ़ीक़ो कुछ तो करो अर्ज़-ए-हाल का सामाँ

किसी तरह तो कोई दिल-फ़िगार ले फूटे

किसी तरह तो फुसून-ए-सुकूत-ए-शब टूटे

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