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न जाने शाम ने क्या कह दिया सवेरे से - अज़हर नवाज़ कविता - Darsaal

न जाने शाम ने क्या कह दिया सवेरे से

न जाने शाम ने क्या कह दिया सवेरे से

उजाले हाथ मिलाने लगे अँधेरे से

शजर के हिस्से में बस रह गई है तन्हाई

हर इक परिंदा रवाना हुआ बसेरे से

जो उस की बीन की धुन पर हुआ है रक़्स-अंदाज़

ठनी रही है उसी साँप की सपेरे से

अभी ये रौशनी चुभती हुई है आँखों में

अभी हम उठ के चले आए हैं अँधेरे से

तुम्हारा शहर-ए-निगाराँ तो ख़ूब है 'अज़हर'

बचा के लाए हैं दिल आरज़ू के घेरे से

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