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मिलते जुलते हैं यहाँ लोग ज़रूरत के लिए - अज़हर नवाज़ कविता - Darsaal

मिलते जुलते हैं यहाँ लोग ज़रूरत के लिए

मिलते जुलते हैं यहाँ लोग ज़रूरत के लिए

हम तिरे शहर में आए हैं मोहब्बत के लिए

वो भी आख़िर तिरी तारीफ़ में ही ख़र्च हुआ

मैं ने जो वक़्त निकाला था शिकायत के लिए

मैं सितारा हूँ मगर तेज़ नहीं चमकूँगा

देखने वाले की आँखों की सुहूलत के लिए

सर झुकाए हुए ख़ामोश जो तुम बैठे हो

इतना काफ़ी है मिरे दोस्त नदामत के लिए

वो भी दिन आए कि दहलीज़ पे आ कर 'अज़हर'

पाँव रुकते हैं मिरे तेरी इजाज़त के लिए

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