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कोई ऐसी बात है जिस के डर से बाहर रहते हैं - अज़हर नक़वी कविता - Darsaal

कोई ऐसी बात है जिस के डर से बाहर रहते हैं

कोई ऐसी बात है जिस के डर से बाहर रहते हैं

हम जो इतनी रात गए तक घर से बाहर रहते हैं

पत्थर जैसी आँखों में सूरज के ख़्वाब लगाते हैं

और फिर हम इस ख़्वाब के हर मंज़र से बाहर रहते हैं

जब तक रहते हैं आँगन में हंगामे तन्हाई के

ख़ामोशी के साए बाम-ओ-दर से बाहर रहते हैं

जब से बे-चेहरों की बस्ती में चेहरे तक़्सीम हुए

उस दिन से हम आईनों के घर से बाहर रहते हैं

जिस की रेत पे नाम लिखे हैं 'अज़हर' डूबने वालों के

वो साहिल मौजों के शोर-ओ-शर से बाहर रहते हैं

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