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किनारों से जुदा होता नहीं तुग़्यानियों का दुख - अज़हर नक़वी कविता - Darsaal

किनारों से जुदा होता नहीं तुग़्यानियों का दुख

किनारों से जुदा होता नहीं तुग़्यानियों का दुख

नई मौजों में रहता है पुराने पानियों का दुख

कहीं मुद्दत हुई उस को गँवाया था मगर अब तक

मिरी आँखों में है उन बे-सर-ओ-सामानियों का दुख

तो क्या तू भी मिरी उजड़ी हुई बस्ती से गुज़रा है

तो क्या तू ने भी देखा है मिरी वीरानियों का दुख

शिकस्त-ए-ग़म के लम्हों में जो ग़म-आलूद हो जाएँ

ज़मीं हाथों पे ले लेती है उन पेशानियों का दुख

मियान-ए-अक्स-ओ-आईना अभी कुछ गर्द बाक़ी है

अभी पहचान में आया नहीं हैरानियों का दुख

मैं पहले ढूँढता हूँ इक ज़रा आसानियाँ और फिर

बड़ी मुश्किल में रखता है मुझे आसानियों का दुख

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