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गिर्दाब-ए-रेग-ए-जान से मौज-ए-सराब तक - अज़हर नक़वी कविता - Darsaal

गिर्दाब-ए-रेग-ए-जान से मौज-ए-सराब तक

गिर्दाब-ए-रेग-ए-जान से मौज-ए-सराब तक

ज़िंदा है तो लहू में बस इक इज़्तिराब तक

इक मैं कि एक ग़म का तक़ाज़ा न कर सका

इक वो कि उस ने माँग लिए अपने ख़्वाब तक

तू लफ़्ज़ लफ़्ज़ लज़्ज़त-ए-हिज्राँ में है अभी

हम आ गए हैं हिजरत-ए-ग़म के निसाब तक

जो ज़ेर-ए-मौज-ए-आब-ए-रवाँ है ख़ुरूज-ए-आब

आ जाए एक रोज़ अगर सत्ह-ए-आब तक

मिलता कहीं सवाद-ए-वरूद-ओ-शहूद में

होता मिरी हुदूद का कोई हिसाब तक

तेरा ही रक़्स सिलसिला-ए-अक्स-ए-ख़्वाब है

इस अश्क-ए-नीम-शब से शब-ए-माहताब तक

आसार-ए-अहद-ए-ग़म हैं तह-ए-रेग-ए-जाँ कि तू

पहुँचा नहीं अभी दिल-ए-ख़ाना-ख़राब तक

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