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एक इक साँस में सदियों का सफ़र काटते हैं - अज़हर नक़वी कविता - Darsaal

एक इक साँस में सदियों का सफ़र काटते हैं

एक इक साँस में सदियों का सफ़र काटते हैं

ख़ौफ़ के शहर में रहते हैं सो डर काटते हैं

पहले भर लेते हैं कुछ रंग तुम्हारे उस में

और फिर हम उसी तस्वीर का सर काटते हैं

ख़्वाब मुट्ठी में लिए फिरते हैं सहरा सहरा

हम वही लोग हैं जो धूप के पर काटते हैं

सौंप कर उस को तिरे दर्द के सारे मौसम

फिर उसी लम्हे को हम ज़िंदगी-भर काटते हैं

तू नहीं है तो तिरे शहर की तस्वीर में हम

सारे वीराने बना देते हैं घर काटते हैं

उस की यादों के परिंदों को उड़ा कर 'अज़हर'

दिल से अब दर्द का इक एक शजर काटते हैं

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