दिल ख़ाक हुआ प्यार की इस आग में जल कर
और झाँक के उस ने कभी अंदर नहीं देखा
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जी रहा हूँ मैं उदासी भरी तस्वीर के साथ
हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था
सच बोलना चाहें भी तो बोला नहीं जाता
मैं अपने शहर में अपना ही चेहरा खो बैठा
हर एक राह में इम्कान-ए-हादिसा है अभी
हरे दरख़्त का शाख़ों से रिश्ता टूट गया
चाहा है जिस का साया शजर वो बबूल है
इस को कोई ग़म नहीं है जिस का घर पत्थर का है
मिरी दुनिया अकेली हो रही है
हैरान हूँ कि आज ये क्या हादिसा हुआ
मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा
हुरूफ़ ख़ाली सदफ़ और निसाब ज़ख़्मों के