चाहा है जिस का साया शजर वो बबूल है
क़िस्मत में मेरे आज भी सड़कों की धूल है
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मैं अपने शहर में अपना ही चेहरा खो बैठा
हैरान हूँ कि आज ये क्या हादिसा हुआ
मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा
हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था
थी उस की बंद मुट्ठी में चिट्ठी दबी हुई
हुरूफ़ ख़ाली सदफ़ और निसाब ज़ख़्मों के
ब-वक़्त-ए-शाम समुंदर में गिर गया सूरज
इस को कोई ग़म नहीं है जिस का घर पत्थर का है
तुम बहर-ए-मोहब्बत के किनारे पे खड़े थे
हरे दरख़्त का शाख़ों से रिश्ता टूट गया
सच बोलना चाहें भी तो बोला नहीं जाता
दिल ख़ाक हुआ प्यार की इस आग में जल कर