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मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा - अज़हर नैयर कविता - Darsaal

मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा

मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा

चंद अल्फ़ाज़ को माज़ी के भुलाने बैठा

हादसे से ही हुआ ग़म का मुदावा मेरे

फ़ल्सफ़ा सब्र का लोगों को पढ़ाने बैठा

थक के साए में बबूलों के सुकूँ जब चाहा

उस का हर पत्ता मुझे काँटे लगाने बैठा

जिस ने तोड़ा सभी नातों सभी रिश्तों को मिरे

उम्र भर का वही अब क़र्ज़ चुकाने बैठा

उस के तलख़ाब से कब प्यास मिरी बुझ पाई

घर समुंदर के किनारे ही बसाने बैठा

जिस्म के बख़िये जो उधड़े तो उधड़ते ही रहे

जामा रेशम का पहने को सिलाने बैठा

लोग थे गिर्द अलाव के मगर मैं 'नय्यर'

जिस्म की आग को पानी से बुझाने बैठा

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