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हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था - अज़हर नैयर कविता - Darsaal

हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था

हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था

मसर्रतों का ज़माने में काल ऐसा था

फ़ज़ा-ए-शहर में बारूद की थी बू शामिल

कि साँस लेना भी हम को मुहाल ऐसा था

अमीर-ए-शहर के होंटों पे पड़ गए ताले

ग़रीब-ए-शहर का चुभता सवाल ऐसा था

ब-वक़्त-ए-शाम समुंदर में गिर गया सूरज

तमाम दिन की थकन से निढाल ऐसा था

तमाम घोंसले ख़ाली थे नंगे पेड़ों पर

हुदूद-ए-दश्त में वक़्त-ए-ज़वाल ऐसा था

वो जब भी मिलते हैं ज़ख़्मों के फूल देते हैं

हमारा राब्ता उन से बहाल ऐसा था

ज़मीं पे झुकने लगी ख़ुद-ब-ख़ुद हर इक डाली

दरख़्त कर्ब-ए-नुमू से निढाल ऐसा था

ख़ुद अपने आप से भी मैं रहा हूँ बेगाना

हिसार-ए-दिल में किसी का ख़याल ऐसा था

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