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ये क्या कि रंग हाथों से अपने छुड़ाएँ हम - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

ये क्या कि रंग हाथों से अपने छुड़ाएँ हम

ये क्या कि रंग हाथों से अपने छुड़ाएँ हम

इल्ज़ाम तितलियों के परों पर लगाएँ हम

होती हैं रोज़ रोज़ कहाँ ऐसी बारिशें

आओ कि सर से पाँव तलक भीग जाएँ हम

उकता गया है साथ के इन क़हक़हों से दिल

कुछ रोज़ को बिछड़ के अब आँसू बहाएँ हम

कब तक फ़ुज़ूल लोगों पर हम तजरबे करें

काग़ज़ के ये जहाज़ कहाँ तक उड़ाईं हम

किरदार-साज़ियों में बहुत काम आएँगे

बच्चों को वाक़िआत बड़ों के सुनाएँ हम

इस कार-ए-आगही को जुनूँ कह रहे हैं लोग

महफ़ूज़ कर रहे हैं फ़ज़ा में सदाएँ हम

'अज़हर' समाअतें हैं लतीफ़ों की मुंतज़िर

महफ़िल में अपने शेर किसे अब सुनाएँ हम

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