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वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए

वो ताज़ा-दम हैं नए शो'बदे दिखाते हुए

अवाम थकने लगे तालियाँ बजाते हुए

सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया

इक ऐसी बात कही उस ने लड़खड़ाते हुए

उभारती हुई जज़्बात को ये तस्वीरें

ये इंक़लाब हमारे घरों में आते हुए

इसी लिए कि कहीं उन का क़द न घट जाए

सलाम को भी वो डरते हैं हाथ उठाते हुए

इस आदमी ने बहुत क़हक़हे लगाए हैं

ये आदमी जो लरज़ता है मुस्कुराते हुए

जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल

हम और हो गए बूढ़े ग़ज़ल सुनाते हुए

हुआ उजाला तो हम उन के नाम भूल गए

जो बुझ गए हैं चराग़ों की लौ बढ़ाते हुए

यही उसूल है इस्लाह-ए-हाल का 'अज़हर'

कि पुर-ख़ुलूस हों हम ख़ामियाँ गिनाते हुए

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