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वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना

उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना

अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास

कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना

इस क़यामत की जब उस शख़्स को आँखें दी हैं

ऐ ख़ुदा ख़्वाब भी देना तो सुनहरा देना

अपनी तारीफ़ तो महबूब की कमज़ोरी है

अब के मिलना तो उसे एक क़सीदा देना

है यही रस्म बड़े शहरों में वक़्त-ए-रुख़्सत

हाथ काफ़ी है हवा में यहाँ लहरा देना

इन को क्या क़िले के अंदर की फ़ज़ाओं का पता

ये निगहबान हैं इन को तो है पहरा देना

पत्ते पत्ते पे नई रुत के ये लिख दें 'अज़हर'

धूप में जलते हुए जिस्मों को साया देना

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