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उदास उदास तबीअ'त जो थी बहलने लगी - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

उदास उदास तबीअ'त जो थी बहलने लगी

उदास उदास तबीअ'त जो थी बहलने लगी

अभी मैं रो ही रहा था कि रुत बदलने लगी

पड़ोस वालो! दरीचों को मत खुला छोड़ो

तुम्हारे घर से बहुत रौशनी निकलने लगी

ज़रा थमे थे कि फिर हो गए रवाँ आँसू

जो रुक गई थी वो ग़म की बरात चलने लगी

भला हो शहर के लोगों की ख़ुश-लिबासी का

कि बे-कसी भी मिरा पैरहन बदलने लगी

ठहर गई है कहाँ आ के ढलते ढलते रात

मिरी नज़र भी चराग़ों के साथ जलने लगी

नज़र उठी तो अँधेरा था जब क़दम उठ्ठे

शुआ-ए-महर मिरे साथ साथ चलने लगी

सितम-ज़रीफ़ी-ए-फ़ितरत तो देखिए 'अज़हर'

शबाब आया ग़ज़ल पर तो उम्र ढलने लगी

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