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तिरे तक़ाज़ों पे चेहरे बदल रहा हूँ मैं - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

तिरे तक़ाज़ों पे चेहरे बदल रहा हूँ मैं

तिरे तक़ाज़ों पे चेहरे बदल रहा हूँ मैं

नए ज़माने तिरे साथ चल रहा हूँ मैं

चराग़-ए-आख़िर-ए-शब हूँ मगर अभी सूरज

सुकून से तू निकलना कि जल रहा हूँ मैं

ये चाहता हूँ की हर रुख़ से देख लूँ दुनिया

ये ज़ाविए जो नज़र के बदल रहा हूँ मैं

नई हवाएँ अभी सब घरों तक आई नहीं

अभी तो हाथ का पंखा ही झल रहा हूँ मैं

मिरे नशे मुझे अब लड़खड़ाने मत देना

शराब-ख़ाने से बाहर निकल रहा हूँ मैं

ज़रा सा वक़्त है और दूर मेरी मंज़िल है

इसी लिए तो बहुत तेज़ चल रहा हूँ मैं

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