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क़यामत आएगी माना ये हादिसा होगा - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

क़यामत आएगी माना ये हादिसा होगा

क़यामत आएगी माना ये हादिसा होगा

मगर छुपा हुआ मंज़र तो रूनुमा होगा

मुसाहिबों में घिरे होंगे ज़िल्ल-ए-सुब्हानी

ग़नीम शहर को ताराज कर रहा होगा

अभी फ़ज़ा में थी इक तेज़ रौशनी की लकीर

न जाने टूट के तारा कहाँ गिरा होगा

अज़ीज़ मुझ से था इनआ'म मेरे सर का उसे

रईस एक ही शब में वो हो गया होगा

हुई जो बात तो वो आम आदमी निकला

गुमान था कि नए रुख़ से सोचता होगा

रहेगा सामने कब तक ये नीलगूँ मंज़र

ये आसमान कहीं ख़त्म तो हुआ होगा

अजब सफ़र है मुझे भी पता नहीं 'अज़हर'

कि अगले मोड़ पे किरदार मेरा क्या होगा

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