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जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे

जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे

इतने घने दरख़्तों से पत्ते गिरे न थे

इज़हार पर तो पहले भी पाबंदियाँ न थीं

लेकिन बड़ों के सामने हम बोलते न थे

उन के भी अपने ख़्वाब थे अपनी ज़रूरतें

हम-साए का मगर वो गला काटते न थे

पहले भी लोग मिलते थे लेकिन तअ'ल्लुक़ात

अंगड़ाई की तरह तो कभी टूटते न थे

पक्के घरों ने नींद भी आँखों की छीन ली

कच्चे घरों में रात को हम जागते न थे

रहते थे दास्तानों के माहौल में मगर

क्या लोग थे कि झूट कभी बोलते न थे

'अज़हर' वो मकतबों के पढ़े मो'तबर थे लोग

बैसाखियों पे सिर्फ़ सनद की खड़े न थे

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