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जाने आया था क्यूँ मकान से मैं - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

जाने आया था क्यूँ मकान से मैं

जाने आया था क्यूँ मकान से मैं

क्या ख़रीदूँगा इस दुकान से मैं

हो गया अपनी ही अना से हलाक

दब गया अपनी ही चटान से मैं

एक रंगीन सी बग़ावत पर

कट गया सारे ख़ानदान से मैं

रोज़ बातों के तीर छोड़ता हूँ

अपने अज्दाद की कमान से मैं

माँगता हूँ कभी लरज़ के दुआ

कभी लड़ता हूँ आसमान से मैं

ऐ मिरे दोस्त थक न जाऊँ कहीं

तिरी आवाज़ की तकान से मैं

डरता रहता हूँ ख़ुद भी 'अज़हर'-ख़ाँ

अपने अंदर के इस पठान से मैं

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