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इस बुलंदी पे कहाँ थे पहले - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

इस बुलंदी पे कहाँ थे पहले

इस बुलंदी पे कहाँ थे पहले

अब जो बादल हैं धुआँ थे पहले

नक़्श मिटते हैं तो आता है ख़याल

रेत पर हम भी कहाँ थे पहले

अब हर इक शख़्स है एज़ाज़ तलब

शहर में चंद मकाँ थे पहले

आज शहरों में हैं जितने ख़तरे

जंगलों में भी कहाँ थे पहले

लोग यूँ कहते हैं अपने क़िस्से

जैसे वो शाह-जहाँ थे पहले

टूट कर हम भी मिला करते थे

बेवफ़ा तुम भी कहाँ थे पहले

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