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हक़ीक़तों का नई रुत की है इरादा क्या - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

हक़ीक़तों का नई रुत की है इरादा क्या

हक़ीक़तों का नई रुत की है इरादा क्या

कहानियों ही में ले साँस शाहज़ादा क्या

ये रंग-ज़ार है अपना परों पे तितली के

धनक हो ख़ुद में तो फूलों से इस्तिफ़ादा क्या

मोहब्बतों में ये रुस्वाइयाँ तो होती हैं

शराफ़तें तिरी क्या मेरा ख़ानवादा क्या

अगर वो फेंक दे कश्कोल अपने विर्से का

तो इस जहाँ में करे भी फ़क़ीर-ज़ादा क्या

ज़िदें तो शान हुआ करती हैं रईसों की

जो चौथी सम्त न जाए वो शाहज़ादा क्या

ये मेरे नक़्श ये मेरी शराफ़तें 'अज़हर'

अब और चाहिए इस से मुझे ज़ियादा क्या

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