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बनाए ज़ेहन परिंदों की ये क़तार मिरा - अज़हर इनायती कविता - Darsaal

बनाए ज़ेहन परिंदों की ये क़तार मिरा

बनाए ज़ेहन परिंदों की ये क़तार मिरा

इसी नज़ारे से कुछ कम हो इंतिशार मिरा

जो मैं भी आग में हिजरत का तजरबा करता

मुहाजिरों ही में होता वहाँ शुमार मिरा

फिर अपनी आँखें सजाए हुए मैं घर आया

सफ़र इक और रहा अब के ख़ुश-गवार मिरा

तमाम उम्र तो ख़्वाबों में कट नहीं सकती

बहुत दिनों तो किया उस ने इंतिज़ार मिरा

ये मेरा शहर मिरी ख़ामियों से वाक़िफ़ है

यहाँ किसी को न आएगा ए'तिबार मिरा

ये लोग सिर्फ़ मिरी ज़िंदगी के दुश्मन हैं

मुजस्समा ये बनाएँगे शानदार मिरा

मिरी बिसात से 'अज़हर' बहुत ज़ियादा थीं

तवक़्क़ुआ'त जो रखता था मुझ से यार मिरा

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