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ये कम नहीं के वही शाम का सितारा है - अज़हर हाश्मी कविता - Darsaal

ये कम नहीं के वही शाम का सितारा है

ये कम नहीं के वही शाम का सितारा है

जिसे फ़ज़ीलत-ए-तन्हाई ने उभारा है

कहीं सुराग़ नहीं है किसी भी क़ातिल का

लहूलुहान मगर शहर का नज़ारा है

मैं जा रहा हूँ मुकम्मल वजूद पाने को

मुझे भी सूरत-ए-इम्काँ ने अब पुकारा है

वो हँस के हर शब-ए-ज़ुल्मात काट देते हैं

वो जिन के सीने में अफ़्लाक का सिपारा है

चराग़ जलता रहेगा हमेशा उल्फ़त का

यही वजूद के अनवार का इशारा है

ये कैसी सूरत-ए-महताब खुल रही है मगर

ज़मीं पे किस ने इसे अर्श से उतारा है

अना-शिकार पे ज़ाहिर ये कब हुआ 'अज़हर'

उसे निभाने में तक़दीर का ख़सारा है

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