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वफ़ा ख़ुलूस का सिंगार रोज़ करती है - अज़हर हाश्मी कविता - Darsaal

वफ़ा ख़ुलूस का सिंगार रोज़ करती है

वफ़ा ख़ुलूस का सिंगार रोज़ करती है

यूँ धीरे धीरे मिरी ज़िंदगी सँवरती है

कोई हयात ज़माने को है अज़ीज़ बहुत

कोई हयात है कि रोज़ रोज़ मरती है

तिरे चराग़ का फ़ानूस ख़ुद हवा है और

मिरे चराग़ से ज़ालिम हवा गुज़रती है

तो फिर वजूद-ए-इमारत नज़र का है धोका

जब ईंट ईंट ही ता'मीर से मुकरती है

दुआ ये कीजिए यारों कि होश में आऊँ

मिरी निगाह मोहब्बत तलाश करती है

न ख़ुद के रहता है इंसाँ न दूसरों के क़रीब

कोई हसीन शनासाई जब बिखरती है

सितमगरों को इबादत-गुज़ार मत जानो

ख़ुदा की बंदगी 'अज़हर' ख़ुदा से डरती है

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