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मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है - अज़हर हाश्मी कविता - Darsaal

मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है

मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है

इसी सनद से मुक़द्दर चमकता रहता है

किसी मज़ार पे छाई है ख़ाक मुफ़्लिस की

किसी मज़ार का पत्थर चमकता रहता है

ये कैसी रस्म-ए-हलाकत भी पा गई है रिवाज

ये कैसे ख़ून का मंज़र चमकता रहता है

मिरी निगाह को मंज़िल की रौशनी है अज़ीज़

बला से मेल का पत्थर चमकता रहता है

जो उठ के ख़ाक से पर्वाज़ का उजाला बना

उसी परिंदे का शहपर चमकता रहता है

मिटा के हौसले बातिल के आओ सू-ए-हक़

क़दम बढ़ाओ कि रहबर चमकता रहता है

नुजूम शम्स क़मर और जलने लगते हैं

सुख़न-वरों में जब 'अज़हर' चमकता रहता है

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