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ख़ामोश ज़बाँ से जब तक़रीर निकलती है - अज़हर हाश्मी कविता - Darsaal

ख़ामोश ज़बाँ से जब तक़रीर निकलती है

ख़ामोश ज़बाँ से जब तक़रीर निकलती है

लगता है कि पैरों से ज़ंजीर निकलती है

टूटा हुआ बधना था शायद कि वुज़ू का हो

ऐसी भी तो पुरखों की जागीर निकलती है

जो दाग़ है सज्दे का पेशानी-ए-मोमिन पर

उस दाग़ से हो कर ही तक़दीर निकलती है

मिलती है ख़ुशी सब को जैसे ही कहीं से भी

भूली हुइ बचपन की तस्वीर निकलती है

मजरूह क़लम को जब हर लफ़्ज़ दुआ दे दें

ता उम्र क़लम से फिर तहरीर निकलती है

हो अम्न यहाँ हम में सोचा था मगर 'अज़हर'

देखा तो हर इक घर से शमशीर निकलती है

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