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जफ़ाओं की नुमाइश है किसी से कुछ नहीं बोलें - अज़हर हाश्मी कविता - Darsaal

जफ़ाओं की नुमाइश है किसी से कुछ नहीं बोलें

जफ़ाओं की नुमाइश है किसी से कुछ नहीं बोलें

सितमगर की सताइश है किसी से कुछ नहीं बोलें

मुझे तन्हाई पढ़नी है मगर ख़ामोश लहजे में

यही महफ़िल की ख़्वाहिश है किसी से कुछ नहीं बोलें

मिरे अफ़्कार पे बोले बड़ी तहज़ीब से ज़ाहिद

मुक़द्दर आज़माइश है किसी से कुछ नहीं बोलें

ये जो बेहाल सा मंज़र ये जो बीमार से हम तुम

सियासत की नवाज़िश है किसी से कुछ नहीं बोलें

उधर है जाम हाथों में लबों पे मुस्कुराहट है

उधर जब ख़ूँ की बारिश है किसी से कुछ नहीं बोलें

मुलाज़िम बनना था किस को मुलाज़िम बन गया कोई

हुनर ज़ेर-ए-सिफ़ारिश है किसी से कुछ नहीं बोलें

ज़बाँ आज़ाद है जो भी वही तो ज़िंदा है लेकिन

ज़बाँ पे कैसी बंदिश है किसी से कुछ नहीं बोलें

अदावत की यहाँ 'अज़हर' जो इक चिंगारी उट्ठी थी

वो बनती जाती आतिश है किसी से कुछ नहीं बोलें

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