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गुज़रे हुए लम्हात को अब ढूँड रहा हूँ - अज़हर हाश्मी कविता - Darsaal

गुज़रे हुए लम्हात को अब ढूँड रहा हूँ

गुज़रे हुए लम्हात को अब ढूँड रहा हूँ

मैं अपने मुक़द्दर में ग़ज़ब ढूँड रहा हूँ

सज्दे का सबब जान के शीरीं है परेशाँ

फ़रहाद ने कह डाला के रब ढूँड रहा हूँ

वो हैं कि निभाने भी लगे वस्ल के आदाब

मैं हूँ कि तग़ाफ़ुल का सबब ढूँड रहा हूँ

ज़ालिम मुझे फिर सैकड़ों ग़म देने लगा है

मैं ज़िंदगी में एक ख़ुशी जब ढूँड रहा हूँ

क्यूँ मुझ को सुख़नवर कहो पागल न कहो तुम

हर बज़्म में जो बज़्म-ए-अदब ढूँड रहा हूँ

आज़ुर्दा थी ग़ुर्बत में मिरे दोस्त की हिजरत

कुछ मैं भी परेशाँ हूँ अरब ढूँड रहा हूँ

बस एक पता ही तो मुझे याद है 'अज़हर'

दीवाना है क्या तुझ को मैं कब ढूँड रहा हूँ

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