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बस रंज की है दास्ताँ उन्वान हज़ारों - अज़हर हाश्मी कविता - Darsaal

बस रंज की है दास्ताँ उन्वान हज़ारों

बस रंज की है दास्ताँ उन्वान हज़ारों

जीने के लिए मर गए इंसान हज़ारों

वो जिस ने मिरी रूह को दर्द-आश्ना रक्खा

हैं मुझ पे उसी ज़ख़्म के एहसान हज़ारों

जिस ख़ाक से कहते हो वफ़ा हम नहीं करते

सोए हैं उसी ख़ाक में सुल्तान हज़ारों

इक रस्म-ए-तकब्बुर है सो इस दौर के इंसाँ

जेबों में लिए फिरते हैं पहचान हज़ारों

लाज़िम है मसाफ़त में भटक जाना हमारा

हम तन्हा मुसाफ़िर के हैं सामान हज़ारों

अब है फ़क़त अंदेशा-ए-हालात मयस्सर

हम दिल में कभी रखते थे अरमान हज़ारों

ये शहर-ए-सुख़न है यहाँ हर मोड़ पे 'अज़हर'

होशियार बने बैठे हैं नादान हज़ारों

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