ये लोग जा के कटी बोगियों में बैठ गए
समय को रेल की पटरी के साथ चलने दिया
Javed Akhtar
Wasi Shah
Parveen Shakir
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Faiz Ahmad Faiz
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Rahat Indori
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बदल के देख चुकी है रेआया साहिब-ए-तख़्त
उस लब की ख़ामुशी के सबब टूटता हूँ मैं
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
कैसे दुनिया का जाएज़ा किया जाए
भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है
तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझ को क़ुबूल
हम अपनी नेकी समझते तो हैं तुझे लेकिन
ख़ुद पर हराम समझा समर के हुसूल को
उस से हम पूछ थोड़ी सकते हैं
ख़तों को खोलती दीमक का शुक्रिया वर्ना
ये जो रहते हैं बहुत मौज में शब भर हम लोग