मेरी नुमू है तेरे तग़ाफ़ुल से वाबस्ता
कम बारिश भी मुझ को काफ़ी हो सकती है
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दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
कुछ नहीं दे रहा सुझाई हमें
गीले बालों को सँभाल और निकल जंगल से
हमारे ज़ाहिरी अहवाल पर न जा हम लोग
ये जो रहते हैं बहुत मौज में शब भर हम लोग
आँख खुलते ही जबीं चूमने आ जाते हैं
भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है
धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं
ऐसी ग़ुर्बत को ख़ुदा ग़ारत करे
गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
जाते हुए नहीं रहा फिर भी हमारे ध्यान में
ये लोग जा के कटी बोगियों में बैठ गए